उत्तर सहित
Class 10th इतिहास अध्याय - 4
भारत में राष्ट्रवाद
1. भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारणों का परीक्षण करें।
उत्तर ⇒ 19वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में अनेक कारणों का योगदान था। इनमें निम्नलिखित कारण प्रमुख थे-
(i) अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध असंतोष – भारतीय राष्ट्रीयता के विकास का सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजी नीतियों के प्रति बढ़ता असंतोष था। अंग्रेजी सरकार की नीतियों के शोषण के शिकार देशी रजवाड़े, ताल्लुकेदार, महाजन, कृषक, मजदूर, मध्यम वर्ग सभी बने। सभी अंग्रेजी शासन को अभिशाप मानकर इसका खात्मा करने का मन बनाने लगे।
(ii) आर्थिक कारण – भारतीय राष्ट्रवाद का उदयं का एक महत्त्वपूर्ण कारण आर्थिक था। सरकारी आर्थिक नीतियों के कारण कृषि और कुटीर-उद्योग धंधे नष्ट हो गए। किसानों पर लगान एवं कर्ज का बोझ चढ़ गया। किसानों को नगदी फसल नील, गन्ना, कपास उपजाने को बाध्य कर उसका भी मुनाफा सरकार ने उठाया। अंग्रेजी आर्थिक नीति से भारत से धन का निष्कासन हुआ, जिससे भारत की गरीबी बढ़ी। इससे भारतीयों में प्रतिक्रिया हुई एवं राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ।
(iii) अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार-19वीं शताब्दी में भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार ने भारतीयों की मानसिक जड़ता समाप्त कर दी। वे भी अब अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांस एवं यूरोप की अन्य महान क्रांतियों से परिचित हुए। रूसो, वाल्टेयर, मेजिनी, गैरीबाल्डी जैसे दार्शनिकों एवं क्रांतिकारियों के विचारों का प्रभाव उनपरपरा पड़ा ।
(iv) सामाजिक, धार्मिक सुधार आंदोलन का प्रभाव –19वीं शताब्दी के सामाजिक, धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भी राष्ट्रीयता की भावना विकसित की। ब्रह्मसमाज, आर्य-समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन ने एकता, समानता एवं स्वतंत्रता की भावना जागृत की तथा भारतीयों में आत्म-सम्मान, गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने में योगदान किया।
(v) राजनीतिक एकीकरण- भारत में अंग्रेजों ने उग्र साम्राज्यवादी नीति अपनाई। वारेन हेस्टिंग्स से लेकर लॉर्ड डलहौजी ने येन-केन-प्रकारेण देशी रियासतों को अपना अधीनस्थ बना लिया। 1857 के विद्रोह के बाद महारानी विक्टोरिया ने सभी देशी राज्यों की अंग्रेजी अधिसत्ता में ले लिया। इससे एक प्रकार से भारत का । राजनीतिक एवं प्रशासनिक एकीकरण हुआ। लॉर्ड डलहौजी द्वारा रेल, डाक-तार की व्यवस्था से आवागमन और संचार की सुविधा बढ़ गई। इससे संपूर्ण भारत में। स्थानीयता की भावना के स्थान पर राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी।
2. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गाँधीजी के योगदान की विवेचना करें।
उत्तर ⇒ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में 1919-1947 का काल गाँधी युग के नाम से जाना जाता है। राष्ट्रीय आंदोलन को गाँधीजी ने एक नई दिशा दिया। सत्य अहिंसा, सत्याग्रह का प्रयोग कर गाँधीजी भारतीय राजनीति में छा गए। इन्हीं अस्ता का सहारा लेकर वे औपनिवेशिक सरकार के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलनों क जन-आंदोलन में परिवर्तित कर दिया। 1917-18 में उन्होंने चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद में सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया। 1920 ई० में गाँधीजी ने अहसयोग आंदोलन आरंभ किया। जिसम बहिष्कार, स्वदेशी तथा रचनात्मक कार्यक्रमों पर बल दिया गया। 1930 में गाँधी जी ने सरकारी नीतियों के विरुद्ध दूसरा व्यापक आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन आरभ किया। इसका आरंभ उन्होंने 12 मार्च, 1930 को दांडी यात्रा से किया। गाँधीजी का 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन था जिसमें उन्होंने लोगों को प्रेरित करते हुए ‘करो या मरो’ का मंत्र दिया। गाँधीजी के सतत् प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही 15 अगस्त, 1947 को भारत का आजादी प्राप्त हुई। वे एक राजनीतिक नेता के साथ-साथ प्रबुद्ध चिंतन समाजसुधारक एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे।
3. सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारणों की विवेचना करें।
उत्तर ⇒ ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ गाँधीजी के नेतृत्व में 1930 ई० में शुरू किया गया सविनय अवज्ञा आंदोलन के महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित थे –
(i) साइमन कमीशन- सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में बनाया गया यह 7 सदस्यीय आयोग था जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे। भारत में साइमन कमीशन के विरोध का मुख्य कारण कमीशन में एक भी भारतीय को नहीं रखा जाना तथा भारत के स्वशासन के संबंध में निर्णय विदेशियों द्वारा किया जाना था।
(ii) नेहरू रिपोर्ट- कांग्रेस ने फरवरी, 1928 में दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन किया। समिति ने ब्रिटिश सरकार से डोमिनियन स्टेट’ की दर्जा देने की माँग की। यद्यपि नेहरू रिपोर्ट स्वीकृत नहीं हो सका, लेकिन संप्रदायिकता की भावना उभरकर सामने आई। अतः गाँधीजी ने इससे निपटने के लिए सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम पेश किया।
(iii) विश्वव्यापी आर्थिक मंदी- 1929-30 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा पड़ा। भारत का निर्यात कम हो गया लेकिन अंग्रेजों ने भारत से धन का निष्कासन बंद नहीं किया। पूरे देश का वातावरण सरकार के खिलाफ था। इस प्रकार सविनय अवज्ञा आंदोलन हेतु एक उपयुक्त अवसर दिखाई पड़ा।
(iv) समाजवाद का बढ़ता प्रभाव- इस समय कांग्रेस के युवा वर्गों के बीच मार्क्सवाद एवं समाजवादी विचार तेजी से फैल रहे थे, इसकी अभिव्यक्ति कांग्रेस के अंदर वामपंथ के उदय के रूप में हुई। वामपंथी दबाव को संतुलित करने के आंदोलन के नए कार्यक्रम की आवश्यकता थी।
(v) क्रांतिकारी आंदोलनों का उभार- इस समय भारत की स्थिति विस्फोटक थी। ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ और ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ ने सरकार विरोधी विचारधारा को उग्र बना दिया था। बंगाल में भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ एक बार फिर उभरी।
(vi) पूर्णस्वराज्य की माँग- दिसंबर, 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पर्ण स्वराज्य की माँग की गयी। 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वतंत्रता दिवस मनाने की घोषणा के साथ ही पूरे देश में उत्साह की एक नई लहर जागृत हुई।
(vii) गाँधी का समझौतावादी रुख – आंदोलन प्रारंभ करने से पूर्व गाँधी ने वायसराय लार्ड इरावन के समक्ष अपनी 11 सूत्रीय माँग को रखा। परन्तु इरविन ने मांग मानना तो दूर गाँधी से मिलने से भी इनकार कर दिया। सरकार का दमन चक्र तेजी से चल रहा था। अतः बाध्य होकर गाँधीजी ने अपना आंदोलन डांडी मार्च आरम्भ करने का निश्चय किया।
4. असहयोग आंदोलन के कारण एवं परिणाम का वर्णन करें।
उत्तर ⇒ महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्रारंभ किया गया प्रथम जन-आदोलन असहयोग आंदोलन था। इस आंदोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –
(i) रॉलेट कानून- 1919 ई० में न्यायाधीश सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में रॉलेट कानून (क्रांतिकारी एवं अराजकता अधिनियम) बना। इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति को बिना कारण बताए गिरफ्तार कर जेल में डाला जा सकता था तथा इसके खिलाफ वह कोई भी अपील नहीं कर सकता था।
(ii) जालियाँवाला बाग हत्याकांड- 13 अप्रैल, 1919 ई० को बैसाखी मैले के अवसर पर पंजाब के जालियाँवाला बाग में सरकार की दमनकारी नीति के खिलाफ लोग एकत्रित हुए थे। जनरल डायर के द्वारा वहाँ पर निहत्थी जनता पर गाली चलवाकर हजारों लोगों की जान ले ली गयी। गांधीजी ने इस पर काफी प्रतिक्रिया व्यक्त किया।
(iii) खिलाफत आंदोलन- इसी समय खिलाफत का मुद्दा सामने आया। गांधीजी ने इस आंदोलन को अपना समर्थन देकर हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने और एक बड़ा सशक्त अंग्रेजी राज विरोधी असहयोग आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया।
परिणाम – 5 फरवरी, 1922 ई० को गोरखपुर के चौरी-चौरा नामक स्थान पर हिंसक भीड़ द्वारा थाने पर आक्रमण कर 22 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गयी। जिससे नाराज होकर गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन को तत्काल बंद करने की घोषणा की। असहयोग आंदोलन का व्यापक प्रभाव पड़ा।
असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगित हो जाने और गाँधीजी की गिरफ्तारी के कारण खिलाफत के मुद्दे का भी अंत हो गया। हिंदू-मुस्लिम एकता भंग हो गई तथा संपूर्ण भारत में संप्रदायिकता का बोलबाला हो गया। न ही स्वराज की प्राप्ति हुई और न ही पंजाब के अन्यायों का निवारण हुआ। असहयोग आंदोलन के । परिणामस्वरूप ही मोतीलाल नेहरू तथा चितरंजन दास के द्वारा स्वराज पार्टी की स्थापना हुई।
5. खिलाफत आंदोलन क्यों हुआ ? गाँधीजी ने इसका समर्थन क्यों किया ?
उत्तर ⇒ तुर्की (ऑटोमन साम्राज्य की राजधानी) का खलीफा जो ऑटोमन साम्राज्य का सुलतान भी था, संपूर्ण इस्लामी जगत का धर्मगुरु था। पैगंबर के बाद सबसे अधिक प्रतिष्ठा उसी की थी। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के साथ तुर्की भी पराजित हुआ। पराजित तुर्की पर विजयी मिस्र-राष्ट्रों ने कठोर संधि थोप दी (सेव्र की संधि)। ऑटोमन साम्राज्य को विखंडित कर दिया गया।
खलीफा और ऑटोमन साम्राज्य के साथ किए गए व्यवहार से भारतीय मुसलमानों में आक्रोश व्याप्त हो गया। वे तुर्की के सुल्तान एवं खलीफा की शक्ति और प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना के लिए संघर्ष करने को तैयार हो गए। इसके लिए खिलाफत आंदोलन आरंभ किया गया। 1919 में अली बंधुओं (मोहम्मद अली और शौकत अली) ने बंबई में खिलाफत समिति का गठन किया। आंदोलन चलाने के लिए जगह-जगह खिलाफत कमिटियाँ बनाकर तुर्की के साथ किए गए अन्याय के विरुद्ध जनमत तैयार करने का प्रयास किया गया। ‘ गाँधीजी ने इस आंदोलन को अपना समर्थन देकर हिंदू-मुसलमान एकता स्थापित करने और एक बड़ा सशक्त राजविरोधी आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया।
6. असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्वरूप में क्या अंतर था ? महिलाओं की सविनय अवज्ञा आंदोलन में क्या भूमिका थी ?
उत्तर ⇒ असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्वरूप में काफी विभिन्नता थी। असहयोग आंदोलन में जहाँ सरकार के साथ असहयोग करने की बात थी, वहीं सविनय अवज्ञा आंदोलन में न केवल अंग्रेजों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का भी उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा। असहयोग आंदोलन की तुलना में सविनय अवज्ञा आंदोलन काफी व्यापक जनाधार वाला आंदोलन साबित हुआ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया। वे घरों की चारदीवारी से बाहर निकलकर गांधीजी की सभाओं में भाग लिया। अनेक स्थानों पर स्त्रियों ने नमक बनाकर नमक कानून भंग किया। स्त्रियों ने विदेशी वस्त्र एवं शराब के दुकानों की पिकेटिंग की। स्त्रियों ने चरखा चलाकर सूत काते और स्वदेशी को प्रोत्साहन दिया। शहरी क्षेत्रों में ऊँची जाति की महिलाएं आंदोलन में सक्रिय थीं तो ग्रामीण इलाकों में संपन्न परिवार की किसान स्त्रिया।
7. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में वामपंथियों की भूमिका को रेखांकित करें।
उत्तर ⇒ 20 वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में ही भारत में साम्यवादी विचारधाराओं क अंतर्गत बंबई, कलकत्ता, कानपर, लाहौर, मद्रास आदि जगहों पर साम्यवादी सभाएं बननी शुरू हो गई थी। उस समय इन विचारों से जुड़े लोगों में मुजफ्फर अहमद, एस० ए० डांगे, मौलवी बरकतुल्ला, गुलाम हुसैन आदि नाम प्रमुख हैं। इन लोगों ने अपने पत्रों के माध्यम से साम्यवादी विचारों का पोषण शुरू कर दिया था। परंतु रूसी क्रांति की सफलता के बाद साम्यवादी विचारों का तेजी से भारत में फैलाव शुरू हुआ। उसी समय 1920 में एम० एन० राय ने ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। असहयोग आंदोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उन्हें उपने विचारों को फैलाने का मौका मिला। अब ये लोग आतंकवादी राष्ट्रवादी आंदोलनों से भी जुड़ने लगे थे। इसलिए असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद सरकार ने इन लोगों का दमन शुरू किया और पेशावर षड्यंत्र केस (1922-23), कानपुर षड्यंत्र केस (1924) और मेरठ षड्यंत्र केस (1929) के तहत लोगों पर मुकदमें चलाए। तब साम्यवादियों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया और राष्ट्रवादी “साम्यवादी शहीद” कहे जाने लगे। इसी समय इन्हें कांग्रेसियों का समर्थन मिला क्योंकि सरकार द्वारा लाए गए “पब्लिक सेफ्टी बिल” को कांग्रेसी पारित होने नहीं दिए थे, क्योंकि यह कानून कम्युनिस्टों के विरोध में था। इस तरह अब साम्यवादी आंदोलन प्रतिष्ठित होता जा रहा था।
अब तक कई मजदूर संघों का गठन हो चुका था। 1920 में AITUC की स्थापना हो गई थी तथा 1929 में एन० एम० जोशी ने AITUF का गठन कर लिया। इस तरह वामपंथ का प्रसार मजदूर संघों पर बढ़ रहा था। किसानों को भी साम्यवाद से जोड़ने का प्रयास हुआ। लेबर स्वराज पार्टी भारत में पहली किसान मजदूर पार्टी थी लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर दिसंबर, 1928 में अखिल भारतीय मजदूर किसान पार्टी बनी। अक्टूबर, 1934 में बंबई में कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की गयी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान साम्यवादियों ने कांग्रेस का विरोध करना शुरू किया क्योंकि कांग्रेस उन उद्योगपतियों एवं मर्थन से चल रही थी जो मजदूरों का शोषण करते थे।
8. जालियाँवाला बाग हत्याकांड क्यों हुआ ? इसने राष्ट्रीय आंदोलन को कैसे बढ़ावा दिया ?
उत्तर ⇒ भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों पर अकुंश लगाने के उद्देश्य से सरकार ने 1919 में रॉलेट कानून (क्रांतिकारी एवं अराजकता अधिनियम) बनाया। इस कानून के अनुसार सरकार किसी को भी संदेह के आधार पर गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाए उसको दंडित कर सकती थी तथा इसके खिलाफ कोई अपील भी नहीं की जा सकती थी। भारतीयों ने इस कानून का कड़ा विरोध किया। इसे ‘काला कानून’ की संज्ञा दी गई। अमृतसर में एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ जिसकी अध्यक्षता डॉ० सत्यपाल और डॉ० सैफुद्दीन किचलू कर रहे थे। सरकार ने दोनों को गिरफ्तार कर अमृतसर से निष्कासित कर दिया। जनरल डायर ने पंजाब में फौजी शासन लागू कर आतंक का राज स्थापित कर दिया। पंजाब के लोग अपने प्रिय नेता की गिरफ्तारी तथा सरकार की दमनकारी नीति के खिलाफ 13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी मेले के अवसर पर अमृतसर के जालियांवाला बाग में एक विराट सम्मेलन कर विरोध प्रकट कर रहे थे, जिसके कारण ही जनरल डायर ने निहत्थी जनता पर गोलियाँ चलवा दी। यह घटना जालियाँवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना गया।
जालियाँवाला बाग की घटना ने पूरे भारत को आक्रोशित कर दिया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और हडताल हुए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस घटना के विरोध में अपना ‘सर’ का खिताब वापस लौटाने की घोषणा की। वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य शंकरन नायर ने इस्तीफा दे दिया। गाँधीजी ने कैसर-ए-हिन्द की उपाधि त्याग दी। जालियाँवाला बाग हत्याकांड ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नई जान फूंक दी।
9. भारत में मजदूर आंदोलन के विकास का वर्णन करें।
उत्तर ⇒ 20 वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में मजदूरों के आंदोलन हुए, तथा उनके संगठन बने। श्रमिक आंदोलन को वामपंथियों का सहयोग एवं समर्थन मिला। शोषण के विरुद्ध श्रमिक वर्ग संगठित हुआ। अपनी मांगों के लिए. इसने हड़ताल का सहारा लिया। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व, इसके दौरान एवं बाद में अनेक हड़ताले हुई। पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए मजदूरों ने अपने संगठन बनाए। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन का गठन लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में हुआ। विभिन्न श्रमिक संगठनों को इससे सम्बद्ध किया गया। आगे चलकर साम्यवादी
भाव के कारण इस संघ में फूट पड़ गई और साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित संगठन-ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन हुआ। 1935 में तीनों श्रमिक संघ पुनः एकजुट हुए। तब से श्रमिक संघ विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रभाव में मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
10. अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कैसे हुई ? इसके प्रारंभिक उद्देश्य क्या थे ?
उत्तर ⇒ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत 19 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से माना जाता है। 1883 ई० में इंडियन एसोसिएशन के सचिव आनंद मोहन बोस ने कलकत्ता में ‘नेशनल काँफ्रंस’ नामक अखिल भारतीय संगठन का सम्मेलन बुलाया जिसका उद्देश्य बिखरे हुए राष्ट्रवादा शक्तियों को एकजुट करना था। परंतु, दूसरी तरफ एक अंग्रेज अधिकारी एलेन ऑक्टोवियन ह्यूम ने इस दिशा में अपने प्रयास शुरू किए और 1884 में ”भारतीय राष्ट्रीय संघ’ की स्थापना की। भारतीयों को संवैधानिक मार्ग अपनाने और सरकार के लिए सुरक्षा कवच बनाने के उद्देश्य से ए०ओ०ह्यूम ने 28 दिसम्बर, 1885 को अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। इसके प्रारंभिक उद्देश्य निम्नलिखित थे
(i) भारत के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय हित के नाम से जुड़े लोगों के , संगठनों के बीच एकता की स्थापना का प्रयास।
(ii) देशवासियों के बीच मित्रता और सद्भावना का संबंध स्थापित कर धर्म, वंश, जाति या प्रांतीय विद्वेष को समाप्त करना।
(iii) राष्ट्रीय एकता के विकास एवं सुदृढ़ीकरण के लिए हर संभव प्रयास करना। राजनीतिक तथा सामाजिक प्रश्नों पर भारत के प्रमुख नागरिकों से चर्चा करना एवं उनके संबंध में प्रमाणों का लेखा तैयार करना।
(v) प्रार्थना पत्रों तथा स्मार पत्रों द्वारा वायसराय एवं उनकी काउन्सिल से सुधारों हेतु प्रयास करना।
इस प्रकार कांग्रेस का प्रारंभिक उद्देश्य शासन में सिर्फ सुधार करना था।
11. 20 वीं शताब्दी के किसान आंदोलन का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर ⇒ 20 वीं शताब्दी का किसान आंदोलन किसानों में एक नई जागृति ला दी। वे अपने सामाजिक-आर्थिक हितों के सुरक्षा के लिए संगठित होने लगे। यद्यपि महात्मा गाँधी ने किसानों के हित के लिए चंपारण और खेड़ा में सत्याग्रह भी किया परंतु कांग्रेस शुरू से ही किसानों की समस्याओं के प्रति उदासीन बनी रही। इसी बीच वामपंथियों का प्रभाव किसानों और श्रमिकों पर बढ़ता जा रहा था। अत: उनके प्रभाव में 20 वीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में किसान सभाओं का गठन बिहार. बंगाल और उत्तर प्रदेश में हुआ। जहाँ जमींदारी, अत्याचार और शोषण अपनी पराकाष्ठा पर थी। 1920-21 में अवध किसान सभा का गठन किया गया। 1922-23 में मुंगेर में शाह मुहम्मद जुबेर ने किसान सभा का गठन किया। 1928 में पटना के बिहटा में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान सभा का गठन किया। 1929 में उन्हीं के नेतृत्व में सोनपर में प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की गयी। 1936 में स्वामी सहजानंद की अध्यक्षता में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ।
अखिल भारतीय किसान सभा ने किसानों को संगठित करने एवं उनमें चेतना जगाने के लिए किसान बुलेटिन एवं किसान घोषणा पत्र जारी किया। किसानों की मुख्य मांगें जमींदारी समाप्त करने, किसानों को जमीन का मालिकाना हक देने, बेगार प्रथा समाप्त करने एवं लगान की बढ़ी दरों में कमी थी। अपनी मांगों के समर्थन में किसानों ने प्रदर्शन तथा व्यापक आंदोलन किए। सितम्बर, 1936 को पूरे देश में किसान दिवस मनाया गया। उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य स्थानों में किसानों की जमीन को बकाश्त जमीन में बदलने के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन हुआ।
12. प्रथम विश्वयद्ध के भारतीय राष्टीय आंदोलन के साथ अन्तसबमा की विवेचना करें।
उत्तर ⇒ प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत में होनेवाली तमाम घटनाएँ से उत्प परिस्थितियों की ही देन थी। इसने भारत में नई आर्थिक और राजनैतिक स्थिति उत्प की जिससे भारतीय राष्ट्रवाद ज्यादा परिपक्व हुआ। महायुद्ध के बाद भारत आर्थिक स्थिति बिगडी। पहले तो कीमतें बढी और फिर आर्थिक गतिविधिया होने लगी जिससे बेरोजगारी बढी। महँगाई अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गयी | मजदूर, किसान दस्तकारों का सबसे अधिक प्रभावित किया। इसी परिस्थिति :
धागपतियों का एक वर्ग का उदय हुआ। युद्ध के बाद भारत में विदेशा पूंजी का प्रभाव बढ़ा। भारतीय उद्योगपतियों ने सरकार से विदेशी वस्तुओं के आयात में भारी आयात शुल्क लगाने की माँग की जिससे उनका घरेलू उद्योग बढ़े लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को इनकार कर दिया। अंततः प्रथम विश्वयुद्ध ने भारत सहित पूरे एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रबल बनाया।
13. भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में जनजातीय लोगों की क्या भूमिका थी ?
उत्तर ⇒ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में जनजातियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 19 वीं एवं 20 वीं शताब्दियों में उनके अनेक आंदोलन हुए। 19 वा शताब्दी में हो, कोल, संथाल एवं बिरसा मुंडा आंदोलन हुए। 1916 में दक्षिण भारत की गोदावरी पहाड़ियों के पुराने रंपा प्रदेश में विद्रोह हुआ। 1920 के दशक में आंध्र प्रदेश की गूडेम पहाड़ियों में अल्लूरी सीताराम राजू का विद्रोह हुआ। छोटानागपुर में उराँव जनजातियों के बीच जतरा भगत के नेतृत्व में ताना भगत आंदोलन चला। इन प्रमुख आंदोलनों के अतिरिक्त देश के अन्य भागों में भी अनेक जनजातीय विद्रोह हुए, जैसे – उड़ीसा में 1914 का खोंड विद्रोह, 1917 में मयूरभंज में संथालों एवं मणिपुर में थोडोई कुकियों का विद्रोह, बस्तर में 1910 में गुंदा धुर का विद्रोह इत्यादि। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत की जनजातियों एवं भारत छोडो आंदोलन के समय झारखंड के आदिवासियों ने भी विद्रोह किए। ये सभी जनजातीय विद्रोह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हुए थे।
History Class 10th VVI Subjective question answer
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